मनुष्य के जीवन में जीत और हार का खेल हमेशा चलता रहता है। हर कोई अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करता है, लेकिन क्या हमें हर तकरार में जीत ही मिलती है? क्या यह सच है कि जीतना महत्वपूर्ण है, उतना ही हारना भी? यह विचार बहुत से लोगों के मन में खेलता है। “तकरार में जीत नहीं = जीते तो भी हारेंगे, हरे तो हार हैं ही” – इस मुख्य सिद्धांत के आसपास घूमते हुए, हम इस पोस्ट में इस विचार को गहराई से समझने का प्रयास करेंगे।
कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो हर वक्त बहस व तकरार के लिए ही तैयार रहते हैं। विषय कोई भी हो लेकिन वे बहस किये बिना चुप नहीं बैठ सकते। तर्क में तो जीता जा सकता है, परन्तु बिना वजह की बहस और तकरार का कोई नतीजा नहीं निकलता। इसलिए इसका परिणाम कभी भी फलदायी नहीं होता। किसी बहस को जीतने का सबसे आसान तरीका यही है कि उसमें पड़ा ही ना जाये।
बहस एक ऐसी चीज है जिसे जीता नहीं जा सकता, क्योंकि अगर आप जीतते हैं तो भी हारेंगे और हारते हैं तो भी हारेंगे। इसकी जीत में भी हार और हार है ही।अगर आप बहस में जीतते हैं तो एक अच्छी नौकरी, ग्राहक, दोस्त या जीवन साथी खो देते हैं, तो यह कैसी जीत है ? बहस करना हारती हुई लडाई के समान है। जज्बाती लड़ाइयां आपके जीत जाने के बाद भी दिलों में दर्द छोड़ जाती हैं।
बहस में दोनों व्यक्ति अपनी-अपनी बात मनवाने पर तुले होते हैं। बहसबाजी अंहकार की लड़ाई से ज्यादा कुछ भी नहीं, जिसमें एक-दूसरे पर चिल्लाने की होड़-सी होती है। वह तो समझता है कि वह सब कुछ जानता है यह तो बेवकूफ है ही, लेकिन सबसे ज्यादा बेवकूफ जो उससे बहस करता है। बहस हमेशा उस तंग दिमाग से आती हैं जो क्या ठीक है की बजाये कौन ठीक है, साबित कने की कोशिश करता है।
सबके दिमाग पर सोच का स्तर अलग-अलग होता है। अतः जिस वाद- विवाद से कोई मतलब नहीं हो उसको छोड़कर क्यों अपने मिलने वाले, ईष्ट मित्रों एवं रिश्तेदारों से संबंध खराब किये जायें। ऐसे में आपके पास सबसे सरल रास्ता यही है कि बहस में न पड़ें उसे नजरअंदाज कर दें।
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