‘नकलची’ बंदर होता है हमारा दिमाग

कभी न कभी यह बात तो आपने भी अनुभव की ही होगी कि किसी व्यक्ति से मिलकर, बात करके या उसका रंग-ढंग देखकर आप भी उससे प्रभावित होकर जाने-अनजाने में उसी की तरह बोलने या हरकत करने लगते हैं।

मानें या न मानें, पर यह है हकीकत. जिस इंसानी दिमाग की ताकत के बलबूते पर पूरी दुनिया चल रही है. वह खुद किसी नकलची बंदर की तरह नकल करने का आदी होता है. नकल करने की यह प्रवृति से हमें जन्मजात मिली है. कभी गौर करके देखिए, आपके आस-पास बैठे लोगों में से अगर किसी को खांसी आती है तो उसकी आवाज सुनते ही न चाहते हुए भी, अनजाने में ही कोई और भी खांसने या गला साफ करने लगता है. मानो उसके गले में भी खराश हो रही हो. यह भी हमारे इस नकलची बंदर दिमाग का ही नतीजा है.

'नकलची' बंदर होता है हमारा दिमाग

इस संबंध में हुए शोध व अध्ययन बताते हैं कि प्रकृति हमें सीखने-सिखाने के लिए नकल की यह अक्ल देती है. शुरुआती समय में छोटे बच्चे बिना सिखाए खुद घरवालों की नकल करने लगते हैं. यही बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो किशोरावस्था में वे अभिभावकों की नकल करना तो छोड़ देते हैं. वे अब अपने यारों-दोस्तों और उन व्यक्तियों की हरकतों की नकल करते हैं जिन्हें वे पसंद करते हैं. ऐसे लोगों में कोई प्रसिद्ध नेता, अभिनेता, गायक, खिलाड़ी आदि कोई भी हो सकता है. कई बार ये बच्चे किसी हकले या तोतले व्यक्ति से प्रभावित होकर उसी की तरह बोलने की कोशिश करते हैं. किशोर से युवा और युवा से अधेड़ होने के बाद भी नकल से सीखने की यह प्रक्रिया खत्म नहीं होती.

'नकलची' बंदर होता है हमारा दिमाग

इसके अलावा बचपन से ही बोलने, सोने, उठने-बैठने, खाने-पीने, चलने, दौड़ने, चीजों के समझने आदि के बारे में लगातार सीखते रहने के कारण हमारा दिमाग सीखने की इस प्रक्रिया का और ज्यादा अभ्यस्त हो जाता है तथा दिमाग की यह विशेषता आगे तक बनी रहती है. फ्रेंच न्यूरोविशेषज्ञ ज्यां दस्ती कहते हैं, ‘नकल की प्रक्रिया के द्वारा हम सीखने के अलावा यह भी जान सकते हैं कि दूसरे लोग क्या व कैसा अनुभव करते हैं.’

“अमेरिकी मनोविज्ञानी एंड्रयू मेल्टजोफ भी मानते है कि नकल करना प्राकृतिक प्रक्रिया है. इसे सीखने की जरूरत नहीं पड़ती. यह हमारा जन्मजात गुण होता है. इसके माध्यम से प्रकृति हमारे सांस्कृतिक गुणों का विस्तार करती है. कई विशेष का मानना है कि इंसान ही नहीं, बल्कि जानवर भी अपने ‘बड़ों’ की नकल से सीखते हैं.”

कुछ विद्वानों का मानना है हमारा ‘अवचेतन ‘मन‘ हमें नकलची बनाता है. इंसानों के मस्तिष्क में दूसरों से दोस्ती करने का नैसर्गिक गुण होता है. एक छोटा-सा बच्चा भी मुस्कुराते, चहकते-चिल्लाते या हाथ-पैर चलाते हुए दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेता है. ‘अटेंशन, पर्सेपशन एंड साइकोफिजिक्स जर्नल‘ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हमारे अंदर नकल करने की प्राकृतिक क्षमता होती है. जो हमें दूसरों से मित्रता करने में सहायता करती है. कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के अनुसार हमारा अवचेतन मन सामने वाले व्यक्ति के हाव-भावों, उसके खड़े होने के ढंग, बोलने के अंदाज, गति व उतार-चढ़ाव आदि की भी नकल करने लगता है.

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